Monday, 1 August 2011

A tribute to a great literate of 19th century- Munshi Premchand


ओ कथाकार !
युग के सजग, मुखरित, अमिट इतिहास,
जन-शक्ति के अविचल प्रखर विश्वास !

शुभप्रभात्,
जैसा कि यह सर्वविदित है कि कल हिंदी साहित्य के मूर्धन्य साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद की एक सौ इक्तिस्वीं जयंती मनायी गयी. इसी उपलक्ष्य में मैं आज उनका संक्षिप्त परिचय लेकर उपस्थित हूँ.
            प्रेमचंद के उपनाम से लिखने वाले धनपत राय श्रीवास्तवका जन्म ३१ जुलाई१८८० में,वाराणसी के लमही नाम के गाँव मेंहुआ था । उन्हें मुंशी प्रेमचंद व नवाब राय के नाम से भी जाना जाता है और उपन्यास सम्राट के नाम से भी सम्मानित किया जाता है। इस नाम से उन्हें सर्वप्रथम बंगाल के विख्यात उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने संबोधित किया था।प्रेमचंद ने हिन्दी कहानी और उपन्यास की एक ऐसी परंपरा का विकास किया जिस पर पूरी सदी का साहित्य आगे चल सका। उन्होंने उपन्यास, कहानी, नाटक, लेख, सम्पादकीयआदि अनेक विधाओं में साहित्य की सृष्टि की। उन्होंने कुल पन्द्रह उपन्यास, तीन सौ से कुछ अधिक कहानियाँ, तीन नाटक, दस अनुवाद, सात बाल-पुस्तकें तथा हजारों पृष्ठों के लेख, सम्पादकीय, भाषणआदि की रचना की।वे एक सफल लेखक, देशभक्त नागरिक, कुशल वक्ता, ज़िम्मेदार संपादक और संवेदनशील रचनाकार थे।
उन्होंने साहित्य में सामयिकता प्रबल आग्रह की स्थापना की। आम आदमी को उन्होंने अपनी रचनाओं का विषय बनाया और उसकी समस्याओं पर खुलकर कलम चलाते हुए, उन्हें साहित्य के नायकों के पद पर आसीन किया। उन्होंने जीवन और कालखंड की सच्चाई को पन्ने पर उतारा। वे सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार, जमींदारी, कर्जखोरी, गरीबी परआजीवन लिखते रहे। बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में जब हिन्दी में काम करने की तकनीकी सुविधाएँ भी नहीं थीं,तब इतना काम करने वाला लेखक, उनके सिवा दूसरा कोई न था।बाद की तमाम पीढ़ियोंको प्रेमचंद के रचना-कर्म ने दिशा प्रदान की।
8 अक्टूबर1936 को,जलोदर रोग से उनका देहावसान हुआ।इस तरह वह दीप सदा के लिए बुझ गया जिसने अपने जीवन की बत्ती को कण-कण जलाकर, भारतीयों का पथ आलोकित किया। आज के युग में भले हि वे सशरीर हमारे बीच नहीं हैं, परन्तु उनके आदर्शों और मूल्यों की उपस्थिति ने उन्हें कभी हमसे दूर नहीं किया .

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